Monday, April 30, 2012

मिला ना एक भी इन्सा करोड़ों ही कमीनो में

मिली इंसानियत ना आसमाँ में ना ज़मीनों में
मिला ना एक भी इन्सा करोड़ों ही कमीनो में

हवा दे दे के भड़काते है वो हर इक चिंगारी को
भरे बारूद बैठें हैं वो नफ़रत की मशीनों में

मिटी तेरी जलन ना अब तलक इन शीत कमरों में
तूँ क्या जाने बड़ी ठंडक है मेहनत के पसीनों में

बुरा ना देखा ; बोला ना सुना बापू के थे बंदर
चली जब ज़ुल्म की आँधी बचा ना एक तीनों में

अगर कुर्सी की ताक़त का हमीं पे ज़ोर चलना था
के फिर जी जी क्यूँ करता तू वोटों के महीनों में

मिले हर मोड़ पर "जैली" तुझे ज़ख़्मों के बाज़ीगर
मिला ना एक भी हमदर्द जलसा-ए-हसीनों में

No comments:

Post a Comment